कुछ सुबह की धुंध थी
और याद है मुझे
तुम...एक ग़ज़ल सी
बेफिक्र ..बेपरवाह
सो रही थी
कुछ था आलस
तुम्हारी उभरी आँखों को
माथे पर पड़े हुए बल को
कभी कभी यूँ ही आई
एक गहरी सी हंसी को
कुछ था आलस
खिड़की से आती
कभी कभी तुम्हे परेशा करती
एक टुकड़ी धूप को
और कुछ था आलस
तुम्हारे चेहरे पे लहराते
इक् शरारती बाल को
नन्ही साँसों के डुबान से जो
हिल तो रहा था
ना जाने क्यों पर
चेहरे से दूर नहीं जा रहा था
काफी देर तक ..यूँ ही
मै भी एक तक सा देखता रह गया
उन् साँसों से इधर उधर
कभी लरजते ,सिमटते और मुड़ते
कभी यहाँ कभी वहाँ भागते
उसी एक शरारती बाल को
अपनी भी आवारगी कुछ ऐसे थी
पूछ बैठे उसी से "करोगे दोस्ती"
एक सांस बाद
कुछ मुदा तुड़ा सा वो
एक तिल के ऊपर से गुजरता है
और कहता है
ठीक है
हुई तुमसे दोस्ती
करो एक प्रॉमिस
कोशिश की बहुत आजतक
लेकिन कभी इस ग़ज़ल से
बात नहीं हो सकी
थोड़ी हिम्मत करके मैंने सोचा
आखिर तुम्हारा नाम तो जान ही लूं
लेकिन , चुपके से..जब भी
तुम्हे सोता हुआ देखता हूँ
और जब भी चेहरे पर खेलते हुए
उस बाल को देखता हूँ
कुछ बातें करनी थी जो
कुछ किस्से कहने थे जो
उनको भूल जाता हूँ
और जब तुम्हारी आँखें खुलती हैं
दाहिने हाथ की किसी ऊँगली से
उस शरारती बाल को चेहरे से हटा के
बड़े करीने से जुल्फों में बाँधा जाता है
मै उस प्लेन की खिड़की से बाहर देखता हूँ
और ये सोचता हूँ
क्या तुम्हारी आँखें खुली हुई थी
जब हम कुछ बातें कर रहे थे ?
Written for a co-passenger in Air Deccan flight.....