Sunday, May 25, 2008

कभी मन में आता है . . .

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कभी जी करता है इक कागज़ बन के उड़ जाऊँ. . . हवा के साथ साथ यहाँ तो कभी वहाँ घूम आऊँ . . . फ़िर किसी दरख्त पर जाकर घोंसले के ऊपर से गुजरता फिरू . . . वहाँ रहने वाली चिडिया के बच्चो के साथ थोड़ा हँसी ठिठोली कर आऊँ और फ़िर bye कह किसी पत्ते पर भी झूल जाऊं . . . पेड़ से उतरते ही किसी शरारती बच्चे के हाथ लगूँ जो मुझे गेंद बना औरों के साथ खेल ले . . . उन्ही में से कोई मुझे अपने घर ले जाए और तरह तरह के रंगो में मुझे नहला मेरे ऊपर उगता सूरज,भूरी पहाडी और नदी के किनारे एक छोटा सा घर बनाये . . . कभी जी करता है एक कागज़ बन उड़ जाऊं. . .


कभी जी में आता है बारिश की बूंद बनूँ . . . काले कम्बल से घने बादलों की ओंट में छुपकर उनके खुलने का इंतज़ार करूँ . . . ज़मीन और आसमाँ को जोड़ती कड़ी का एक छोटा मगर मज़बूत हिस्सा बनूँ . . . गिरते ही कभी किसी प्लेन से जाके टकराऊँ तो कभी ऊँचे सफ़ेद पहाडों से लडूँ . . . मगर किसी शहर पहुँचने में डरूँ . . . बिजली के बड़े बड़े तारो में अक्सर अटक सा जो जाऊँगा,अपने साथी बूंदों के साथ . . और फ़िर गिर पडेंगे हम सब, जैसे एक साथ ही मरने के लिए पैदा हों . . . कभी खुशकिस्मत रहूँ गर तो किसी गरीब के टपकते हुए झोपड़े से नीचे ज़मीन को छू लूँ . . . और अगर नही रहूँ तो किसी छत पे पड़ा अपने ही सूखने का इंतज़ार करूँ,सुबह की कड़ी धूप का . . . मुझे कभी कभी मन में आता है कि बारिश की एक बूँद बनूँ . . .


कभी जी में आता है एक छोटी सी डोर बनूँ . . . जिसे सुई में पिरो के किसी कपड़े को मजबूती मिले या उसकी उधडी हुई सीवन को बाहरी दुनिया से आती मुसीबतों से लड़ने का हौसला मिले . . . कभी न मिलने वाले दो सिरों के बीच में मेल करूं . . . कभी ख़ुद में ही उलझ कर अपने आप से ही लड़ पडूं या जुड़कर औरो के साथ,एक हल्की चादर बनूँ जो किसी सोते हुए को थोडी ही सही,मगर गर्मी दे सके . . . कभी मन में आता है कि एक छोटी सी डोर बनूँ . . .


कभी जी में आता है नया एक रिश्ता बनूँ . . . ऐसा जो अभी तक मौजूद नही है . . . भाई,पति,दोस्त . . . इन सारे रिश्तो से परे ऐसा रिश्ता जो किसी कमरे,किसी तस्वीर के frame या फ़िर किसी के पर्सनल diary में बंद शब्द के जैसे बंधा ना हो . . . ऐसा रिश्ता जो ख्याल के जैसे ही आजाद हो और खुली हवा में या उल्काओं में ,जहाँ उसका जी चाहे घूम रहा हो . . . ना ही रिश्ते का कोई खट्टा,मीठा या नमकीन स्वाद हो . . . और ना ही वो रिश्ता चुम्बक के जैसे कुछ खींचता फ़िरे . . . मगर हाँ,ऐसा रिश्ता बनूँ जो कभी न भूलने वाली एक याद बनके अपने निशाँ सफ़ेद कागज़ पे छोड़ जाए . . . हमेशा के लिए . . .
कभी मन में आता है कि एक रिश्ता बनूँ . . .


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Written for a metaphor of Gulzar " एक सौ सोलह चांद कि रातें . . . एक तुम्हारे काँधे का तिल . . ." in the movie "Izaajat"